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राजनीति में नीति और व्यावहारिकता के बीच संतुलन दर्शाता एक नेता, दीपक और शतरंज के साथ |
राजनीति में नीति बनाम व्यावहारिकता
भूमिका – जब आदर्श और यथार्थ आमने-सामने हों
पृष्ठभूमि – नीति और व्यावहारिकता का ऐतिहासिक द्वंद्व
भारतीय संदर्भ
रामायण में राम आदर्श नीति का प्रतीक हैं, जिन्होंने सत्य, धर्म और मर्यादा का पालन हर परिस्थिति में किया। वहीं, कृष्ण महाभारत में व्यावहारिकता के प्रतीक हैं, जिन्होंने न्याय सुनिश्चित करने के लिए रणनीति और चालों का सहारा लिया।
आधुनिक राजनीति में द्वंद्व
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महात्मा गांधी के लिए नैतिकता सर्वोच्च थी – “सत्य और अहिंसा” उनकी राजनीति का मूल आधार रहे।
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वहीं, चाणक्य जैसे आचार्यों ने सिखाया कि सत्ता और राज्य-चालन के लिए व्यावहारिक चातुर्य अनिवार्य है।
नीति बनाम व्यावहारिकता – प्रमुख अंतर
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व्यावहारिक राजनीति के यथार्थ
लोकतंत्र में बहुमत का दबाव
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चुनाव जीतने के लिए नेताओं को कई बार आदर्शों से समझौता करना पड़ता है।
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वोट बैंक की राजनीति नीति से ज़्यादा व्यावहारिकता पर निर्भर करती है।
गठबंधन राजनीति की मजबूरियाँ
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जब सरकारें गठबंधन पर आधारित होती हैं, तो नीतियों में लचीलापन लाना पड़ता है।
वैश्विक कूटनीति में आदर्श सीमित
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विदेश नीति में मित्र-शत्रु नहीं, केवल हित होते हैं – यह वाक्य व्यावहारिकता का उदाहरण है।
लेकिन क्या नीति को नकारा जा सकता है?
नीति की ज़रूरत क्यों?
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नीति नागरिकों का विश्वास अर्जित करती है।
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आदर्श नेतृत्व ही लंबे समय तक टिकता है (जैसे – अब्राहम लिंकन, नेल्सन मंडेला)।
संतुलन की आवश्यकता – नीति और व्यावहारिकता का समन्वय
यथार्थवादी आदर्शवाद की ओर
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एक सफल नेता वह होता है जो नीति को मार्गदर्शक और व्यावहारिकता को साधन बनाए।
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नीति और व्यावहारिकता में संवाद, न कि संघर्ष होना चाहिए।
केस स्टडी: लाल बहादुर शास्त्री
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युद्ध के कठिन समय में भी उन्होंने सत्य, सरलता और कठोर निर्णय का समन्वय करके नीति और व्यावहारिकता का उदाहरण प्रस्तुत किया।
निष्कर्ष – न नीति अकेली, न व्यावहारिकता
“राजनीति वह कला है, जहाँ सिद्धांतों के साथ रणनीति का मेल जरूरी होता है।”