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राजा का जीवन जनता की सेवा और धर्मपालन के लिए है - कामन्दकीय नीतिसार |
Keywords - कामन्दकीय नीतिसार, राजा का धर्मसाधन, प्राचीन भारतीय राजनीति, राजा का कर्तव्य,लोकतंत्र और प्रजा-कल्याण
कामन्दकीय नीतिसार | राजा का धर्म और प्रजा-कल्याण
विषय सूची
- प्रस्तावना
- श्लोक और भावार्थ
- कामन्दकीय नीतिसार की दृष्टि
- लोकतंत्र में प्रासंगिकता
- दार्शनिक संदेश
- निष्कर्ष
- प्रश्नोत्तर
- पाठकों के लिए सुझाव
- संदर्भ
प्रस्तावना
क्या राजा का शरीर केवल उसके व्यक्तिगत सुख और भोग के लिए है? या फिर वह प्रजा का है?
कामन्दकीय नीतिसार इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट शब्दों में देता है। आचार्य कामन्दक कहते हैं कि राजा का जीवन और शरीर “धर्मसाधन” है। अर्थात्, राजा को अपने स्वास्थ्य और सुरक्षा का ध्यान इसलिए रखना चाहिए ताकि वह धर्म की रक्षा और प्रजा के कल्याण का कार्य कर सके। यह विचार आज के लोकतंत्र में भी उतना ही प्रासंगिक है, जहाँ नेताओं से अपेक्षा है कि उनका जीवन जनता की सेवा को समर्पित हो।
श्लोक और भावार्थ
श्लोक:“लोकानुग्रहमन्विच्छन् शरीरमनुपालयेत्।
राक्षः संशरणं धाम शरीरं धर्मसाधनम्॥”
भावार्थ:
राजा को अपने शरीर की रक्षा केवल इस उद्देश्य से करनी चाहिए कि वह प्रजा की सेवा और रक्षा कर सके। प्रजा का संरक्षण ही उसका सर्वोच्च धर्म है, और शरीर उसी धर्मपालन का साधन है।
पाठकों के लिए सुझाव
राजा को अपने शरीर की रक्षा केवल इस उद्देश्य से करनी चाहिए कि वह प्रजा की सेवा और रक्षा कर सके। प्रजा का संरक्षण ही उसका सर्वोच्च धर्म है, और शरीर उसी धर्मपालन का साधन है।
कामन्दकीय नीतिसार की दृष्टि
आचार्य कामन्दक चौथी-पाँचवीं शताब्दी के महान राजनीतिज्ञ और दार्शनिक माने जाते हैं। उनका ग्रंथ “नीतिसार” शासन, कूटनीति और राज्य-संचालन का अद्भुत संकलन है। यह कौटिल्य के अर्थशास्त्र से मिलता-जुलता होते हुए भी अधिक मानवीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
लोकतंत्र में प्रासंगिकता
- आज लोकतंत्र में नेता वही भूमिका निभाते हैं जो प्राचीन काल में राजा निभाता था। प्रजा के कल्याण को सर्वोपरि मानकर शासन चलाना ही असली धर्म है।
- प्राचीन काल में राजा का शरीर धर्मसाधन था। उसी प्रकार, आधुनिक लोकतंत्र में नेता का पद और जीवन भी जनता की सेवा का साधन होना चाहिए। यदि नेता इसे केवल निजी ऐश्वर्य, परिवारवाद या सत्ता-लालसा का उपकरण बना लें, तो वे अपने कर्तव्य से भटक जाते हैं।
- राजनीति को नैतिक और जनोन्मुखी बनाने के लिए आवश्यक है कि नेता अपने आचरण, स्वास्थ्य और कार्यशैली को जनता के प्रति उत्तरदायी समझें।
Modern vs Ancient Infographic
प्राचीन दृष्टि (राजा) | आधुनिक दृष्टि (नेता) |
शरीर = धर्मसाधन | पद और जीवन = जनता की सेवा |
प्रजा की रक्षा सर्वोच्च कर्तव्य | नागरिकों का कल्याण सर्वोच्च कर्तव्य |
धर्मपालन और लोकहित | संविधान और न्याय पालन |
निजी सुख गौण | निजी ऐश्वर्य त्याज्य |
दार्शनिक संदेश
- राजा या नेता को सदैव स्मरण रखना चाहिए कि उसका जीवन साधन है, साध्य नहीं। सत्ता, ऐश्वर्य या व्यक्तिगत सुरक्षा का महत्व तभी है जब वे जनता की रक्षा और कल्याण के लिए समर्पित हों।
- यदि शासक अपने शरीर और जीवन को केवल स्वार्थ या विलासिता के लिए सुरक्षित रखे, तो उसका शासन अन्यायी और क्षणभंगुर हो जाता है।
- लेकिन जब वह स्वयं को धर्म, न्याय और प्रजा की सेवा का साधन मानता है, तब उसका नाम इतिहास में आदर्श शासक के रूप में दर्ज होता है।
सार रूप में:
- शासक का जीवन स्वयं के लिए नहीं, जनता के लिए होता है।
- सत्ता का उद्देश्य प्रजा-कल्याण और धर्मपालन है।
- शरीर और शक्ति केवल धर्मसाधन हैं, विलासिता के साधन नहीं।
- न्याय और लोकहित ही शासक की सच्ची पहचान बनाते हैं।
निष्कर्ष
कामन्दकीय नीतिसार का यह विचार आज भी हमारी राजनीति को दिशा दे सकता है। नेता या राजा का शरीर केवल उसका निजी नहीं, बल्कि जनता का है। यदि शासक इस सिद्धांत को अपनाएँ, तो शासन वास्तव में प्रजाहितकारी बन सकता है।
प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1: कामन्दकीय नीतिसार में राजा के शरीर को धर्मसाधन क्यों कहा गया है?
उत्तर: क्योंकि राजा का जीवन और स्वास्थ्य प्रजा-रक्षा और धर्मपालन का साधन है, न कि निजी भोग के लिए।
प्रश्न 2: कौटिल्य और कामन्दक में क्या अंतर है?
उत्तर: कौटिल्य का दृष्टिकोण अधिक राजा-केन्द्रित है, जबकि कामन्दक की दृष्टि राष्ट्र-केन्द्रित कही जा सकती है।
प्रश्न 3: आधुनिक लोकतंत्र में यह विचार कैसे लागू होता है?
उत्तर: आज भी नेताओं से अपेक्षा है कि वे अपने पद और जीवन का उपयोग केवल जनता की सेवा के लिए करें।
पाठकों के लिए सुझाव
- अगली बार हम “कामन्दकीय नीतिसार में राजा के कर्तव्यों ” पर चर्चा करेंगे।
- यदि आप राजनीति और दर्शन के विषयों में और पढ़ना चाहते हैं, तो कौटिल्य का अर्थशास्त्र और महाभारत का शांति पर्व अवश्य पढ़ें।