उपनिषदों में ब्रह्म का स्वरूप: आत्मा, ज्ञान और मुक्ति की खोज

ब्रह्म की निराकार और सर्वव्यापी चेतना की खोज में लीन ऋषि – उपनिषदों की गहराइयों से प्रेरित दृश्य

परिचय

“सर्वं खल्विदं ब्रह्म”सब कुछ ब्रह्म है।

यह वाक्य केवल एक दार्शनिक कथन नहीं, बल्कि उपनिषदों का मूल मंत्र है। उपनिषदों में "ब्रह्म" को सृष्टि का मूल, आत्मा का आधार और मुक्ति का माध्यम कहा गया है।

इस लेख में हम जानेंगे कि ब्रह्म क्या है, कैसा है, और क्यों उपनिषदों में इसे सर्वश्रेष्ठ सत्य कहा गया है। हम इसके स्वरूप, गुण, और मानव जीवन से इसके संबंध की गहराई से पड़ताल करेंगे।


उपनिषद: एक दृष्टिकोण

उपनिषदों की भूमिका

उपनिषदें वेदों का अंतिम भाग हैं, जिन्हें वेदांत भी कहा जाता है। इन ग्रंथों का उद्देश्य केवल पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि ज्ञान, तर्क और आत्मबोध है। ब्रह्म की अवधारणा उपनिषदों की सबसे केन्द्रीय और गहन शिक्षा है।


ब्रह्म का स्वरूप: उपनिषदों की दृष्टि

ब्रह्म है सर्वव्यापी और निराकार

उपनिषदों के अनुसार, ब्रह्म कोई मूर्त वस्तु नहीं, बल्कि एक अद्वितीय, सर्वत्र व्यापी और निराकार चेतना है।

"नेति नेति" – यह भी नहीं, वह भी नहीं।
ब्रह्म को किसी एक रूप में बाँधना असंभव है। वह सभी रूपों के पार है।

उदाहरण:
जैसे वायु को नहीं देखा जा सकता, पर उसका प्रभाव हर जगह है; वैसे ही ब्रह्म दिखाई नहीं देता, पर हर अस्तित्व में व्याप्त है।


आत्मा और जगत का आधार

"अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) – यह महावाक्य बताता है कि ब्रह्म और आत्मा अलग नहीं हैं।
उपनिषदों का एक प्रमुख सिद्धांत है कि आत्मा (जीव) और ब्रह्म (परम) अंततः एक ही हैं।

“यथोर्णनाभिः सृजते...” — जैसे मकड़ी अपने जाल को खुद से रचती है, वैसे ही ब्रह्म जगत को उत्पन्न करता है।

ब्रह्म कोई अलग ईश्वर नहीं, बल्कि वही चेतना है जो मनुष्य, प्रकृति और ब्रह्मांड में समान रूप से प्रवाहित है।


ब्रह्म है नित्य, अनंत और शाश्वत

उपनिषद ब्रह्म को "सत्-चित्-आनंद" (अस्तित्व, चेतना और आनंद) कहते हैं।

  • नित्य – समय से परे

  • अनंत – सीमाओं से परे

  • शाश्वत – जन्म और मरण से परे

केस स्टडी उदाहरण:
एक राजा, जिसने सब सुख प्राप्त किए, फिर भी शांति नहीं मिली। उपनिषद में ज्ञान प्राप्त कर उसने जाना कि आत्मा का सुख बाह्य नहीं, ब्रह्म की अनुभूति में है


ब्रह्म – मुक्ति का स्रोत

मोक्ष का अर्थ है – जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति।
उपनिषद कहते हैं कि जब आत्मा को यह बोध हो जाता है कि वह ब्रह्म से अभिन्न है, तो उसे मुक्ति प्राप्त होती है

ज्ञान (विद्या) ही इसका माध्यम है, और यह ज्ञान केवल पठन-पाठन से नहीं, बल्कि अंतरदृष्टि, ध्यान और आत्म-चिंतन से आता है


ब्रह्म की अनुभूति: ज्ञान का मार्ग

श्रवण, मनन और निदिध्यासन

ब्रह्म की अनुभूति के तीन चरण माने गए हैं:

  1. श्रवण – गुरु से सुनना

  2. मनन – उस ज्ञान पर विचार करना

  3. निदिध्यासन – उस ज्ञान का आत्म-चिंतन

इन तीनों से ही आत्मा ब्रह्म की ओर अग्रसर होती है।

उद्धरण

“तत्वमसि” – तू वही है।
यह उपनिषद का आत्मा और ब्रह्म की एकता को स्पष्ट करने वाला प्रमुख वाक्य है।


निष्कर्ष

ब्रह्म कोई बाह्य शक्ति नहीं, बल्कि स्वयं में स्थित चेतना है। उपनिषद हमें यह सिखाते हैं कि हम जो कुछ भी हैं, वह ब्रह्म ही है।

ज्ञान, आत्मा और ब्रह्म – ये तीनों जब एक हो जाते हैं, तब होता है मोक्ष।

“ब्रह्म को जानना, स्वयं को जानना है।”


FAQs

प्रश्न 1: ब्रह्म क्या है?

उत्तर: ब्रह्म उपनिषदों के अनुसार वह परम सत्य है, जो निराकार, सर्वव्यापी और चेतन है।

प्रश्न 2: ब्रह्म और आत्मा एक हैं या भिन्न?

उत्तर: उपनिषदों के अनुसार आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं — "अहं ब्रह्मास्मि।"

प्रश्न 3: ब्रह्म की अनुभूति कैसे होती है?

उत्तर: श्रवण, मनन और निदिध्यासन के माध्यम से।

प्रश्न 4: क्या ब्रह्म की कोई मूर्ति या रूप है?

उत्तर: नहीं, ब्रह्म निराकार है। उसे रूपों में नहीं बाँधा जा सकता।


उपनिषदों का ब्रह्म कोई रहस्यमय शक्ति नहीं, बल्कि हमारे भीतर की वह चेतना है जिसे हम भूल गए हैं।

यह दर्शन हमें सिखाता है कि वास्तविक मुक्ति, बाहरी पूजा से नहीं बल्कि अंतर की खोज से आती है।

"आत्मा को जानो, ब्रह्म को जानो – यही जीवन का अंतिम उद्देश्य है।"



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