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कामंदकीय नीतिसार में धर्मसम्मत हिंसा का चित्रण |
कामंदकीय नीतिसार | प्रजारक्षण में राजा की हिंसा क्यों धर्म कहलाती है
विषय सूची
- परिचय
- श्लोक और उसका भावार्थ
- पारंपरिक व्याख्या
- धर्मसम्मत हिंसा क्या है?
- प्रजारक्षण: राजा का पहला धर्म
- ऋषियों और यज्ञ का उदाहरण
- आधुनिक परिप्रेक्ष्य: कानून और व्यवस्था
- नैतिकता और न्याय का संतुलन
- इन्फोग्राफिक: धर्म बनाम अधर्म हिंसा
- राजा की हिंसा कब पाप बनती है?
- निष्कर्ष
- प्रश्नोत्तर
- पाठकों के लिए सुझाव
- संदर्भ
परिचय
भारतीय नीतिशास्त्र केवल राजनीति की चालों या सत्ता के हथकंडों का संग्रह नहीं है, बल्कि यह धर्म, न्याय और सुशासन की गहरी समझ भी प्रदान करता है। इन्हीं ग्रंथों में कामंदकीय नीतिसार एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
इस ग्रंथ का एक केंद्रीय विचार है :-
“प्रजा की रक्षा के लिए राजा की हिंसा धर्म है, पाप नहीं।”
पहली नज़र में यह कथन कठोर लग सकता है, क्योंकि हिंसा आमतौर पर अधर्म और पाप से जोड़ी जाती है। लेकिन जब हम इसके पीछे का तात्त्विक दृष्टिकोण समझते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि प्रजारक्षण और न्याय की स्थापना के लिए राजा की यह हिंसा वास्तव में धर्मसम्मत कर्तव्य है। यही विचार आज भी शासन और न्याय की नींव जैसा प्रतीत होता है।
श्लोक और उसका भावार्थ
धर्मप्रामारेभिरे हिंसामृबिकल्पा महीभुजः ।
तस्मादसाधुन् पापिष्ठान् निघ्नन् पापेन लिप्यते ॥
भावार्थ:
राजा जब धर्म की रक्षा और प्रजा की भलाई हेतु अपराधियों का दमन करता है, तो वह हिंसा पाप नहीं कहलाती। पापिष्ठों को दंड देने से राजा दोषी नहीं होता।
पारंपरिक व्याख्या
कामंदकीय नीतिसार के श्लोकों पर टीकाकार एक रोचक दृष्टांत प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुसार
- जैसे ऋषि यज्ञ में पशुबलि देते हैं और यह कृत्य धर्म का अंग माना जाता है, क्योंकि उसका उद्देश्य व्यक्तिगत लाभ नहीं बल्कि संपूर्ण लोक-कल्याण होता है,
- वैसे ही जब राजा अपराधियों को दंडित करता है, तो उसकी कठोरता भी मात्र हिंसा नहीं है, बल्कि धर्म की रक्षा का कार्य है।
यह दृष्टिकोण हमें बताता है कि कर्तव्य के लिए किया गया कठोर निर्णय और स्वार्थवश की गई हिंसा में बड़ा अंतर है। राजा का दंड, चाहे वह कितना भी कठोर क्यों न लगे, यदि वह समाज की रक्षा और न्याय की स्थापना के लिए है, तो उसे पाप नहीं कहा जा सकता। उल्टे, वही राज्य और प्रजा की सुरक्षा के लिए आवश्यक धर्म माना जाता है।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य
- आज के समय में भी यह विचार उतना ही प्रासंगिक है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजा की जगह अब सरकार और न्यायपालिका ने ले ली है। उनका प्रमुख दायित्व है -निर्दोषों की रक्षा करना और दोषियों को दंड देना।
- अगर कोई अपराधी समाज की शांति और सुरक्षा को भंग करता है, तो उसे दंडित करना केवल कानून का पालन नहीं, बल्कि एक नैतिक जिम्मेदारी भी है। जैसे आतंकवाद, संगठित अपराध या भ्रष्टाचार को यदि सख्ती से नहीं रोका जाए, तो पूरी व्यवस्था खतरे में पड़ सकती है। ऐसे में कठोर दंड देना कभी-कभी हिंसा जैसा लगता है, लेकिन वास्तव में यह समाज की रक्षा का धर्म है।
इसलिए कामंदकीय नीतिसार की यह शिक्षा आज भी हमें याद दिलाती है कि सच्चा शासन केवल दया से नहीं, बल्कि न्यायपूर्ण कठोरता से भी चलता है। न्याय और अनुशासन का संतुलन ही किसी राज्य को स्थिर और प्रजाजन को सुरक्षित बनाता है।
धर्मसम्मत हिंसा क्या है?
कामंदकीय नीतिसार और अन्य भारतीय ग्रंथों में धर्मसम्मत हिंसा का उल्लेख मिलता है। इसका आशय है वह हिंसा, जो केवल और केवल धर्म और न्याय की रक्षा के लिए की जाती है।
- जब कोई राजा या शासक प्रजा की सुरक्षा के लिए अपराधियों पर कठोर दंड लगाता है,
- जब वह धर्म और व्यवस्था की स्थापना के लिए अन्यायियों को रोकता है,
- और जब वह न्याय की रक्षा के लिए कठोर कदम उठाता है, तो यह हिंसा पाप नहीं कहलाती।
महत्वपूर्ण बात यह है कि धर्मसम्मत हिंसा स्वार्थ, लालच, क्रोध या प्रतिशोध से प्रेरित नहीं होती। इसका उद्देश्य केवल सामाजिक संतुलन और लोक-कल्याण होता है। यही कारण है कि नीतिशास्त्रकारों ने इसे राजधर्म का अनिवार्य हिस्सा माना है।
प्रजारक्षण: राजा का पहला धर्म
भारतीय नीतिशास्त्र में बार-बार यह कहा गया है कि राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य प्रजा की रक्षा करना है। यदि राज्य में लोग भय और असुरक्षा में जीते हैं, तो शासन का कोई मूल्य नहीं रह जाता।
- अगर अपराधी बिना दंड के खुले घूम रहे हों,
- अगर साधारण जन को अपने जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी न मिले, तो ऐसा राजा अधर्मी और अयोग्य माना जाता है।
इसी कारण कामंदकीय नीतिसार स्पष्ट कहता है कि प्रजारक्षण के लिए राजा द्वारा किया गया कठोर दंड भी धर्म है। यह केवल न्याय की स्थापना नहीं करता, बल्कि लोगों के मन में यह विश्वास भी जगाता है कि उनका शासक उनके साथ खड़ा है। यही सुरक्षा और विश्वास किसी भी सभ्य समाज की रीढ़ होते हैं।
ऋषियों और यज्ञ का उदाहरण
कामंदक ने राजा के धर्मसम्मत दंड की तुलना ऋषियों के यज्ञ से की है।
- जैसे ऋषि यज्ञ करते समय पशुबलि को धर्म का अंग मानते हैं,
- वैसे ही राजा अपराधियों का दमन धर्म की रक्षा के लिए करता है।
यह दृष्टांत हमें यह सिखाता है कि कभी-कभी धर्म और न्याय की स्थापना के लिए कठोर निर्णय लेना अनिवार्य हो जाता है। यदि राजा केवल करुणा दिखाकर अपराधियों को छोड़ दे, तो समाज अराजकता में डूब जाएगा। इसलिए राजा का दंड, यज्ञ की बलि की तरह, समाज और धर्म की रक्षा के लिए आवश्यक माना गया है।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य: कानून और व्यवस्था
कामंदकीय नीतिसार का यह विचार केवल प्राचीन शासन तक सीमित नहीं है, बल्कि आज भी उतना ही प्रासंगिक है।- जब सेना आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करती है,
- जब पुलिस अपराधियों और माफिया तंत्र को दबाती है,
- और जब न्यायपालिका कठोर दंड सुनाती है,
तो यह सब उसी धर्मसम्मत हिंसा की श्रेणी में आता है, जो समाज की रक्षा और न्याय की स्थापना के लिए की जाती है।
उदाहरण:
उदाहरण:
- 26/11 मुंबई हमले में NSG कमांडो द्वारा आतंकवादियों का खात्मा।
- ऑपरेशन सिदूर (आतंकवादी ठिकानों का विनाश और निर्णायक कार्रवाई)।
- 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक (पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में आतंकवादी ठिकानों पर हमला)।
- 2019 की बालाकोट एयर स्ट्राइक (एयर अटैक द्वारा आतंकवादी ठिकानों का विनाश)।
ये सभी घटनाएँ दिखाती हैं कि सेना द्वारा प्रजा की रक्षा हेतु की गई कठोर कार्रवाई पाप नहीं, बल्कि धर्म का पालन है।
नैतिकता और न्याय का संतुलन
भारतीय दर्शन में अहिंसा को सर्वोच्च नैतिक मूल्य माना गया है। व्यक्ति यदि अहिंसक जीवन जीए तो वह उत्तम आचरण कहलाता है। लेकिन जब बात राज्य और शासन की आती है तो केवल अहिंसा पर्याप्त नहीं रहती।
- यदि अपराधियों और आतंकियों को दंड न दिया जाए,
- यदि अन्यायी लोगों को खुली छूट मिल जाए,
तो समाज अराजकता और भय में डूब जाएगा।
यहीं से राजा या आधुनिक राज्य की भूमिका शुरू होती है। राज्य को अपने निर्णयों में नैतिकता और न्याय दोनों का संतुलन बनाना पड़ता है।
इसका अर्थ है :-
- जहाँ सामान्य नागरिकों के लिए करुणा, क्षमा और सहिष्णुता सर्वोत्तम गुण हैं,
- वहीं शासक वर्ग के लिए अपराधियों को दंडित करना और निर्दोषों की रक्षा करना धर्म है।
इसीलिए कामंदकीय नीतिसार कहता है कि राजा की हिंसा तभी धर्म कहलाती है जब वह न्याय और प्रजारक्षण के लिए हो।
इन्फोग्राफिक: धर्म बनाम अधर्म हिंसा
धर्मसम्मत हिंसा बनाम अधर्म हिंसा – कामंदकीय नीतिसार के अनुसार राजा का कर्तव्य और न्याय
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कामंदकीय नीतिसार बताता है कि राजा की हिंसा प्रजारक्षण के लिए हो तो वह धर्म है, और निजी स्वार्थ के लिए हो तो अधर्म। |
राजा की हिंसा कब पाप बनती है?
कामंदकीय नीतिसार के अनुसार राजा की हिंसा तभी धर्म कहलाती है, जब उसका उद्देश्य प्रजा और धर्म की रक्षा हो। परंतु यदि उसमें विकृति आ जाए, तो वही हिंसा पाप का रूप ले लेती है।
- निजी शत्रुता से प्रेरित दंड : जब राजा व्यक्तिगत दुश्मनी निकालने के लिए कठोर दंड देता है।
- असंतुलित या अन्यायपूर्ण दंड : जब अपराध की तुलना में दंड अत्यधिक या अनुचित हो।
- सत्ता बचाने का साधन : जब दंड का उद्देश्य केवल राजसत्ता को टिकाए रखना हो, न कि प्रजा की सुरक्षा।
इस तरह हिंसा धर्म और पाप के बीच संतुलन का प्रश्न है, उद्देश्य और न्याय से ही इसका मूल्यांकन होता है।
निष्कर्ष
कामंदकीय नीतिसार का यह सिद्धांत हमें यह गहन शिक्षा देता है कि राजा या राज्य का मुख्य कर्तव्य प्रजा की रक्षा और धर्म की स्थापना है। इस कार्य में यदि हिंसा आवश्यक हो, तो वह पाप नहीं बल्कि धर्म कहलाती है।
आज भी यही विचार शासन और न्याय की नींव है:- पुलिस का अपराधियों पर दमन, सेना का आतंकवादियों के विरुद्ध अभियान,न्यायपालिका का कठोर दंडादेश, ये सब उसी धर्मसम्मत हिंसा के आधुनिक रूप हैं। इस प्रकार, धर्म और न्याय का पालन करते हुए किया गया दंड समाज की सुरक्षा और संतुलन के लिए अनिवार्य है।
प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1: क्या हर हिंसा पाप है?
नहीं, प्रजा रक्षा और धर्म पालन हेतु की गई हिंसा पाप नहीं है।
प्रश्न 2: राजा का मुख्य धर्म क्या है?
प्रजारक्षण और न्याय की स्थापना।
प्रश्न 3: क्या यह विचार आज भी लागू होता है?
हाँ, पुलिस और सेना के कार्य इसी सिद्धांत पर आधारित हैं।
राज्य तभी सफल और धर्मनिष्ठ कहलाता है जब उसकी प्रजा भयमुक्त और सुरक्षित जीवन जी सके। इस सुरक्षा की गारंटी देने के लिए कभी-कभी अपराधियों और दुष्टों पर कठोर दंड देना आवश्यक हो जाता है। यही कठोरता धर्मसम्मत हिंसा है, जो पाप नहीं बल्कि धर्म और न्याय की रक्षा का साधन है।
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पाठकों के लिए सुझाव
- नीतिशास्त्र के अन्य ग्रंथ जैसे चाणक्य नीति भी पढ़ें।
- धर्म और राजनीति के संबंध पर विचार करें।
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