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राजधर्म का मूल सिद्धांत: प्रजा की रक्षा और दुष्टों का दमन |
Keywords - राजधर्म, प्रजा की रक्षा, कामंदकीय नीति सार, धर्म और अधर्म, आदर्श शासक
राजधर्म | प्रजा की रक्षा और दुष्टों का दमन
- परिचय
- श्लोक और संदर्भ
- धर्म-अधर्म का विवेक
- प्रजा की रक्षा का महत्व
- दुष्टों का दमन क्यों आवश्यक
- आधुनिक शासन में प्रासंगिकता
- अन्य ग्रंथों से तुलना
- निष्कर्ष
- प्रश्नोत्तर
- पाठकों के लिए सुझाव
- संदर्भ
परिचय
राजधर्म केवल सत्ता चलाने का माध्यम नहीं, बल्कि समाज की सुरक्षा और न्याय का आधार है। भारतीय ग्रंथों में इस विषय पर गहन चर्चा हुई है। कामंदकीय नीति सार का यह श्लोक हमें बताता है कि एक आदर्श शासक का कर्तव्य सिर्फ शासन करना नहीं, बल्कि धर्म और अधर्म का भेद समझकर प्रजा की रक्षा करना और दुष्टों का दमन करना भी है।
श्लोक और संदर्भ
"धर्माधर्मो विजानन् हि शासनेऽभिरतः सताम्।
प्रजां रक्षेन् नृपः साधु हन्याच्च परिपन्थिनः॥"
(कामन्दकीय नीतिसार 6/8)
- धर्म-अधर्मो विजानन् हि - धर्म और अधर्म का स्पष्ट ज्ञान रखते हुए।
- शासनेऽभिरतः सताम्- धर्मनिष्ठ प्रजा का न्यायपूर्ण शासन करते हुए।
- प्रजां रक्षेत् नृपः साधुः - राजा को अपनी प्रजा की रक्षा करनी चाहिए।
- हन्यात् च परिपन्थिनः - और शत्रुओं या बाधा डालने वाले दुष्टों का दमन करना चाहिए।
एक आदर्श राजा धर्म और अधर्म का विवेक रखकर, प्रजा का न्यायपूर्ण शासन करता है। उसका कर्तव्य है कि वह धर्मनिष्ठ प्रजा की रक्षा करे और दुष्टों का संहार करे।
भावार्थ
यह श्लोक राजधर्म के मूल तत्त्व को स्पष्ट करता है।
- धर्म और अधर्म का विवेक: शासन की नींव धर्म पर आधारित होनी चाहिए। जो शासक धर्म-अधर्म का भेद नहीं जानता, उसका शासन लंबे समय तक स्थायी नहीं रह सकता।
- प्रजा की रक्षा: प्रजा ही राज्य का आधार है। यदि जनता सुरक्षित और सुखी है तो राज्य उन्नति करेगा। प्रजा की सुरक्षा और कल्याण करना राजा का प्रथम कर्तव्य है।
- दुष्टों का दमन: केवल सुरक्षा देना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि समाज को अस्थिर करने वाले, अपराधियों और शत्रुओं का दमन करना भी अनिवार्य है। यही न्यायपूर्ण शासन की पहचान है।
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राजा के तीन मुख्य कर्तव्य |
आधुनिक दृष्टिकोण से:
आज लोकतंत्र में भी यही सिद्धांत लागू होता है। चाहे वह प्रधानमंत्री हो, मुख्यमंत्री या कोई स्थानीय नेता उसका सबसे बड़ा कर्तव्य जनता को सुरक्षित रखना और समाज में अन्याय तथा अपराध का उन्मूलन करना है। यदि शासक यह संतुलन साध लेता है तो वही सच्चा राजधर्म निभाता है।
धर्म-अधर्म का विवेक
बिना विवेक के शक्ति अंधी हो जाती है। यदि शासक केवल बल और सत्ता पर भरोसा करेगा, लेकिन धर्म-अधर्म का भेद नहीं समझेगा, तो उसका शासन अन्याय और अराजकता की ओर बढ़ जाएगा।
धर्म का अर्थ यहाँ केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है। इसका वास्तविक अर्थ है- न्याय करना,
- सत्य का पालन करना,
- करुणा और दया रखना,
- तथा प्रजा के हित में नीतियाँ बनाना।
अधर्म का अर्थ है
- अन्यायपूर्ण फैसले,
- शोषण और अत्याचार,
- भ्रष्टाचार और स्वार्थ,
- तथा समाज को अस्थिर करने वाली नीतियाँ।
एक आदर्श शासक को चाहिए कि हर निर्णय से पहले यह देखे कि उसका असर समाज और प्रजा पर कैसा पड़ेगा। यदि निर्णय धर्मसंगत है तो वह राज्य को स्थिर और प्रजा को सुखी बनाएगा। यदि निर्णय अधर्म पर आधारित है तो उसका परिणाम अंततः पतन ही होगा।
आधुनिक सन्दर्भ में:
आज लोकतंत्र में भी यही नियम लागू होता है। नेताओं और प्रशासकों के फैसले तभी सफल माने जाएंगे जब वे न्यायपूर्ण, पारदर्शी और प्रजा-हितकारी हों। धर्म-अधर्म का विवेक ही अच्छे नेतृत्व और स्थायी शासन की पहचान है।
प्रजा की रक्षा का महत्व
प्रजा ही किसी भी राज्य की असली नींव होती है। अगर जनता असुरक्षित और भयभीत है, तो सबसे मज़बूत शासन भी लंबे समय तक स्थिर नहीं रह सकता। इतिहास गवाह है कि जिन राज्यों ने अपनी प्रजा के कल्याण और सुरक्षा की उपेक्षा की, वे अंततः बिखर गए।
प्रजा की रक्षा का अर्थ केवल बाहरी शत्रुओं से सुरक्षा देना नहीं है, बल्कि अंदरूनी खतरों से भी बचाना है ।
- अपराध और अन्याय से मुक्ति,
- भ्रष्टाचार और शोषण से रक्षा,
- तथा शिक्षा, स्वास्थ्य और जीविका की व्यवस्था।
सच्चा राजधर्म वही है जिसमें शासक अपनी प्रजा को सुरक्षित, निडर और समृद्ध वातावरण देता है। जब जनता आत्मविश्वास और सुरक्षा का अनुभव करती है, तभी वह राज्य की उन्नति और विकास में योगदान दे सकती है।
आधुनिक संदर्भ में
आज लोकतंत्र में भी नागरिकों की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता है। चाहे वह आंतरिक सुरक्षा हो, सीमाओं की रक्षा हो या सामाजिक न्याय सरकार की सफलता का मूल्यांकन जनता की सुरक्षा और संतोष से ही होता है।
दुष्टों का दमन क्यों आवश्यक
केवल प्रजा की रक्षा करना ही पर्याप्त नहीं है। अगर समाज में अपराध करने वाले, अत्याचार फैलाने वाले या शत्रु प्रवृत्ति के लोग खुलेआम सक्रिय रहेंगे, तो न तो न्याय कायम हो सकेगा और न ही शांति स्थापित होगी। इसलिए एक आदर्श शासक का कर्तव्य है कि वह ऐसे तत्वों का दमन करे।
दुष्टों का दमन करने के कारण:
- सामाजिक संतुलन बनाए रखना - जब दुष्टों को दंड मिलता है, तब समाज में न्याय और व्यवस्था बनी रहती है।
- जनता में विश्वास पैदा करना - प्रजा तभी सुरक्षित महसूस करती है जब उसे लगे कि अपराधियों को दंड मिलेगा।
- राज्य की स्थिरता - यदि अपराधियों या शत्रुओं को खुली छूट मिल जाए, तो राज्य अस्थिर हो जाता है।
- धर्म की रक्षा - अधर्म का नाश किए बिना धर्म की स्थापना संभव नहीं।
आधुनिक संदर्भ में
आज लोकतंत्र में दुष्टों का दमन कानून और न्यायपालिका के माध्यम से किया जाता है। सरकार का यह दायित्व है कि वह अपराध, आतंकवाद, भ्रष्टाचार और सामाजिक अशांति को कठोरता से रोके। जब अपराधियों को दंड मिलता है, तो जनता का शासन और कानून पर विश्वास मज़बूत होता है।
आधुनिक शासन में प्रासंगिकता
राजधर्म के ये सिद्धांत केवल प्राचीन राजाओं के लिए ही नहीं थे, बल्कि आज के लोकतांत्रिक शासन में भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि आज राजा की जगह चुने हुए प्रतिनिधि और सरकारें हैं, लेकिन उनके कर्तव्य वही बने हुए हैं।
लोकतांत्रिक शासन में राजधर्म की झलक
- नागरिकों की सुरक्षा: हर सरकार की पहली जिम्मेदारी है कि लोग सुरक्षित और निडर जीवन जी सकें। चाहे वह आंतरिक सुरक्षा हो या सीमाओं की रक्षा, नागरिकों की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।
- भ्रष्टाचार का उन्मूलन: भ्रष्टाचार लोकतांत्रिक व्यवस्था को खोखला बना देता है। इसे कठोरता से रोकना भी आधुनिक शासकों का दायित्व है।
- अपराध और अन्याय का दमन: समाज में न्याय और शांति तभी बनी रह सकती है जब अपराधियों और अन्याय फैलाने वालों के खिलाफ सख़्त कार्रवाई हो।
- जनहितकारी नीतियाँ: एक नेता का असली धर्म है कि वह प्रजा के कल्याण के लिए ऐसी नीतियाँ बनाए जो शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और विकास को बढ़ावा दें।
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प्राचीन और आधुनिक शासन में समानताएँ। |
यदि लोकतांत्रिक नेता धर्म-अधर्म का विवेक रखकर फैसले लें, जनता की सुरक्षा और कल्याण को प्राथमिकता दें और अपराध व भ्रष्टाचार को सख्ती से दबाएँ तो वही सच्चे अर्थों में राजधर्म का पालन होगा।
अन्य ग्रंथों से तुलना
भारतीय दार्शनिक और राजनीतिक परंपरा में प्रजा की रक्षा और दुष्टों के दमन को लेकर कई ग्रंथों में समान विचार मिलते हैं। कामंदकीय नीति सार का यह श्लोक उसी धारा का हिस्सा है।
- कौटिल्य का अर्थशास्त्र - कौटिल्य (चाणक्य) ने अपनी कृति अर्थशास्त्र में स्पष्ट कहा है कि राजा को दंडनीति में दक्ष होना चाहिए। यदि दंड नीति कमजोर हो, तो अपराधी और दुष्ट प्रवृत्तियाँ राज्य में फैल जाती हैं। कठोर दंड और न्यायपूर्ण शासन से ही प्रजा का विश्वास कायम रहता है।
- मनुस्मृति- मनुस्मृति में प्रजा-पालन को धर्मराज का सर्वोच्च कर्तव्य बताया गया है। मनु कहते हैं कि राजा प्रजा के हित और सुरक्षा के लिए ही सत्ता प्राप्त करता है। यदि राजा प्रजा की रक्षा नहीं करता, तो उसका शासन अधर्म कहलाता है।
- महाभारत - महाभारत में युधिष्ठिर का आदर्श शासन इस सिद्धांत का प्रत्यक्ष उदाहरण है। युधिष्ठिर ने धर्म के आधार पर राज्य चलाया और हमेशा प्रजा की भलाई को प्राथमिकता दी। इसी कारण उनके शासन को “रामराज्य” के समान आदर्श माना गया।
निष्कर्ष
यह श्लोक केवल प्राचीन काल का आदर्श नहीं, बल्कि आज भी शासन और नेतृत्व के लिए उतना ही प्रासंगिक है। धर्म और विवेक से किया गया शासन ही दीर्घकालिक और स्थायी होता है।
प्रश्नोत्तर
Q1. यह श्लोक कहाँ से लिया गया है?
यह श्लोक कामंदकीय नीति सार से लिया गया है।
Q2. आदर्श शासक का पहला कर्तव्य क्या है?
प्रजा की रक्षा और उनके कल्याण का ध्यान रखना।
Q3. दुष्टों का दमन क्यों आवश्यक है?
क्योंकि बिना दुष्टों के दमन के, समाज में शांति और न्याय संभव नहीं।
राजधर्म केवल इतिहास का हिस्सा नहीं, बल्कि आज की राजनीति, प्रशासन और नेतृत्व में भी उतना ही ज़रूरी है। अगर आपको यह लेख उपयोगी लगा हो तो इसे अपने मित्रों के साथ साझा करें और हमारे ब्लॉग को सब्सक्राइब करें ताकि भारतीय दर्शन और नीति शास्त्र से जुड़े और भी लेख आप तक पहुँच सकें।
पाठकों के लिए सुझाव
- कामंदकीय नीति सार पढ़ें, यह आज भी शासन कला के लिए मार्गदर्शक है।
- भारतीय ग्रंथों से जुड़ी नीतियाँ समझने के लिए कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी पढ़ें।